झारखंड की आत्मा, दिशोम गुरु के नाम से विख्यात शिबू सोरेन का आज तड़के दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया। पिछले एक महीने से किडनी की बीमारी और ब्रेन स्ट्रोक से जूझ रहे शिबू सोरेन की हालत नाजुक थी। उनके निधन की खबर ने झारखंड में शोक की लहर दौड़ दी है। उनके बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पर भावुक संदेश में कहा, "आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए। आज मैं शून्य हो गया हूँ।
11 जनवरी 1944 को हजारीबाग (वर्तमान रामगढ़) जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन झारखंड के उस मिट्टी के लाल थे, जिन्होंने अपने जीवन को समाज के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उनके पिता सोबरन माझी, एक शिक्षित समाजसेवी, शिक्षा की अलख जगाते थे, लेकिन 1957 में महाजनी प्रथा के खिलाफ उनकी बुलंद आवाज को सूदखोरों ने हत्या करके हमेशा के लिए खामोश कर दिया। इस त्रासदी ने शिबू सोरेन के परिवार को बिखेर दिया, मगर उनके हौसले को डिगा न सका।
उस दौर में झारखंड में महाजनी प्रथा का जाल इस कदर फैला था कि मेहनतकश किसानों को अपनी फसल का एक तिहाई हिस्सा भी नसीब नहीं होता था। सूदखोरों का शोषण और अत्याचार चरम पर था। शिबू सोरेन ने इस अन्याय के खिलाफ न केवल आवाज उठाई, बल्कि एक आंधी खड़ी कर दी। नगाड़ों की गूंज उनके संदेशों का प्रतीक बनी, जो झारखंड के कोने-कोने में फैल गई। उनकी अगुवाई में सूदखोरों को आदिवासी समाज का शोषण छोड़कर भागना पड़ा। यह लड़ाई सिर्फ आर्थिक शोषण के खिलाफ नहीं थी, बल्कि सदियों पुरानी सामाजिक गुलामी को तोड़ने की क्रांति थी।
1972 में शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो और निर्मल महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की नींव रखी। यह संगठन सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि गरीबों और आदिवासियों के हक की लड़ाई का प्रतीक बना। निर्मल महतो की मृत्यु के बाद JMM की कमान शिबू सोरेन के हाथों में आई, और उन्होंने झारखंड में विकास का नया अध्याय लिखा। आज JMM की सरकार झारखंड में शिबू सोरेन की विरासत को आगे बढ़ा रही है।
1977 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने वाले शिबू सोरेन भले ही हार गए, लेकिन 1980 में जीत के साथ उन्होंने अपनी सियासी पारी शुरू की। 1989, 1991, 1996, 2004, 2009 और 2014 में सांसद चुने गए। 2002 में वह राज्यसभा सदस्य रहे और 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में कोयला मंत्री के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक जमाई। झारखंड की बात दिल्ली तक पहुंचाने में उनकी भूमिका बेजोड़ थी।
शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने—2005 में 10 दिन, 2008 में 4 महीने 22 दिन और 2009-10 में 5 महीने। उनकी सियासत का आधार हमेशा गरीबों और आदिवासियों का उत्थान रहा।
शिबू सोरेन ने न केवल महाजनी प्रथा को खत्म किया, बल्कि झारखंड के आदिवासी समाज को आत्मसम्मान और पहचान दी। उनकी लड़ाई ने दबे-कुचले लोगों को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया। उनकी सियासत स्वार्थ की नहीं, समर्पण की थी। झारखंड की मिट्टी पर लाल और नीली मिट्टी से लिखी उनकी कहानी आज भी हर गांव-गली में गूंजती है। नगाड़ों की थाप के साथ उनका संदेश आज भी जिंदा है।
शिबू सोरेन के निधन से झारखंड ने न केवल अपने दिशोम गुरु को खोया है, बल्कि देश ने एक सच्चा जननायक खो दिया। उनकी विरासत झारखंड के विकास और आदिवासी समाज की उन्नति के रूप में हमेशा जीवित रहेगी। बापू के सिद्धांतों को आत्मसात करने वाले इस क्रांतिकारी ने साबित किया कि सच्ची आजादी तब मिलती है, जब समाज शोषण की जंजीरों से मुक्त हो।
दिशोम गुरु की यह कहानी झारखंड की आत्मा है। उनके संघर्ष और समर्पण पर आपके विचार क्या हैं? अपनी राय जरूर साझा करें।
✍️ - TOUSIF
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